डीआईएलआई, जैसाकि नाम से ही जाहिर है, किसी ऐसी दवा या पदार्थ की प्रतिकूल प्रतिक्रिया होती है जिसमें लीवर क्षतिग्रस्त हो जाता है और यह एक्यूट या क्रोनिक भी हो सकती है। हालांकि भारत में डीआईएलआई का सटीक आकलन नहीं हो पाया है लेकिन अनुमान है कि पश्चिमी देशों की तुलना में यह ज्यादा है।
मैक्स हॉस्पिटल साकेत में हीपेटोलॉजी एंड लीवर ट्रांसप्लांट मेडिसिन के प्रिंसिपल डायरेक्टर और प्रमुख डॉ. संजीव सैगल बताते हैं, ‘हालांकि इसके लक्षण किसी तरह की लीवर बीमारी की तरह ही होते हैं लेकिन ज्यादातर मामलों में इसके लक्षण मरीज की आंख और पेशाब का रंग (पीलिया) पीला हो जाने के होते हैं, इसके साथ ही मितलाहट, उल्टी और भूख में कमी भी आती है। डीआईएलआई से पीड़ित लगभग 20 फीसदी मरीजों की त्वचा शुष्क या लाल हो जाती है। लंबे समय तक कुछ दवाओं के सेवन से फैटी लीवर या फाइब्रोसिस या सिरोसिस भी हो सकता है। जिन मरीजों में क्रोनिक लीवर रोग पाया जाता है, उनमें डीआईएलआई के कारण पीलिया और जलोदर जैसी समस्या भी तेजी से उभर सकती है। इसे एक्यूट आॅन क्रोनिक लीवर फेल्योर (एसीएलएफ) भी कहा जाता है और इससे मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है।’
डीआईएलआई के कारण लगभग 10 फीसदी मरीजों में एक्यूट लीवर फेल्योर (एएलएफ) और एसीएलएफ विकसित हो जाता है। भारत में डीआईएलआई के कारण मृत्यु दर 12 से 17 फीसदी है और एसीएलएफ के कारण यह मृत्यु दर 47 तक पहुंच जाती है। आम तौर पर डीआईएलआई के दो पैटर्न देखे गए हैं। पहला, सीधा या डोज निर्भरता, जो खासतौर से पैरासिटोमोल के कारण देखा गया है। दैनिक डोज की निश्चित मात्रा से अधिक होने के कारण यह हीपैटोटॉक्सिक होता है। इस प्रकार के नुकसान का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। दूसरा, आइडियोसिंक्रेटिक पैटर्न है जिसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है और किसी भी खुराक या दवा के अंतराल के कारण हो सकता है। भारत में डीआईएलआई के 99 फीसदी मामले आइडियोसिंक्रेटिक हैं। कई ऐसे रिस्क फैक्टर हैं जो व्यक्ति को डीआईएलआई के लिए प्रेरित करते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण क्रोनिक लीवर रोग की उपस्थिति की पहचान करना है। फैटी लीवर, हेपेटाइटिस बी या हेपेटाइटिस सी, एचआईवी संक्रमण से पीड़ित मरीज, बुजुर्ग, कुपोषित, क्रोनिक अल्कोहल सेवन करने वालों में यह खतरा अधिक रहता है। कुछ दवाओं का दुष्प्रभाव जेनेटिक भी होता है और विभिन्न एचएलए के कारण भी डीआईएलआई का खतरा अधिक होता है। लिहाजा डॉक्टरी सलाह के बिना कोई भी दवा नहीं लेनी चाहिए। गिलोय जैसी औषधि का भी सेवन करने से बचना चाहिए क्योंकि इसका एक्यूट लीवर फेल्योर से भी संबंध होता है जिसमें लीवर ट्रांसप्लांट की नौबत आ सकती है।
अल्कोहल और डीआईएलआई दोधारी तलवार होते हैं, इसमें दवाओं का नियमित सेवन खतरा बढ़ा देता है। साथ ही जिन मरीजों को डीआईएलआई है, उनमें अल्कोहल से जुड़े लीवर रोग का खतरा बढ़ जाता है, यदि वे डीआईएलआई की पुष्टि के बाद भी अल्कोहल का सेवन जारी रखते हैं।
भारत में डीआईएलआई के छह कारण हैं— एंटी—टीबी दवाएं (46 फीसदी), परंपरागत और वैकल्पिक दवाएं (14 फीसदी), एंटीएपिलेप्टिक एजेंट (पहली पीढ़ी की दवाओं) (8 फीसदी), नॉन—टीबी एंटीमाइक्रोबिलियल (6.5), एंटीरेट्रोवायरल एजेंट (3.5 फीसदी) और नॉनस्टेरॉयडल एंटी—इनफ्लेमेटरी दवा (एनएसएआईडी)(2.6 फीसदी)। मेथेट्रेक्सेट जैसी दवाएं लंबे समय तक सेवन किए जाने पर फाइब्रोसिस और सिरोसिस का कारण बनती हैं। स्टेरॉयड, टेमॉक्सिफेन, एमियोडेरोन के कारण फैटी लीवर होता है।
डीआईएलआई पर काबू पाने का पहला और अहम कदम जिम्मेदार दवाओं का सेवन बंद करना है। यदि कोई मरीज कई दवाइयों का सेवन कर रहा है तो इलाज करने वाले डॉक्टर को एलएफटी को क्षतिग्रस्त करने वाली दवाओं की पहचान कर उसे बंद करा देना चाहिए। साथ ही क्रोनिक लीवर रोग की पहचान और इस पर काबू पाना भी जरूरी है। डीआईएलआई से पीड़ित कुछ मरीजों का सावधानीपूर्वक इलाज किसी योग्य फिजिशियन की देखरेख में स्टेरॉय की अल्प मात्रा से की जाती है। जिन मरीजों में एएलएफ या एसीएलएफ है उन्हें सिर्फ चिकित्सकीय प्रबंधन से लाभ नहीं मिल सकता और उनके लिए लीवर ट्रांसप्लांट ही एकमात्र विकल्प बचता है।